हम पहाड़ी ठैरे
इफरात चाहने वाले ठैरे
समाज में रहने वाले ठैरे
ईजा, बौज्यू , जेठ ईजा , जेठ बौज्यू,
दाज्यू, दीदी , भुली, कैंजा , आमा, बूबू
चचा , चाच्ची , दगड़िया
इनमें हमारा पराण बसा ठैरा।
चहा और कटक के साथ
फसक मारने वाले ठैरे
अपने ठुलों के आगे
खिचर्याट नहीं करने वाले ठैरे।
हमारे संस्कार हम में ईजा बाबू ने
स्युन के लम्याव झपका के भरे ठैरे
हम ग्यूं मडवे की चुपड़ी रोटी खाकर
बड़े होने वाले ठैरे
बौज्यू मुनटोप देकर और
ईजा घुनटोप देकर
हमें पालने वाली ठैरी।
कक्षा बार तक हम
सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले ठैरे
फिर झोला -झंडी थमा के
चल देने वाले ठैरे शहर
साप बनने के लिए
छोड़ देने वाले ठैरे
ईजा और पहाड़ को
गठिया बात की शरण
और बाबू को भंगाडों में
प्याज गोड़ने के लिए।
शहर जाकर साप बनकर
हम हल्द्वानी में ज़मीन खरीदने वाले ठैरे
फिर वहीं बस जाने वाले ठैरे
अपने अस्तित्व को छोड़कर।
ईजा गोर- बाछ कहाँ छोड सकने वाली ठैरी
उनको भी तो उसने ममता से पाला ठैरा
माँ की वेदना पता ठैरी ईजा को
कभी-कभी गठिया बात के इलाज के लिए
वह हमारे यहाँ आने वाली ठैरी।
बाबू बुड्याँकाव सब अकेले
देखने वाले ठैरे।
साप बन के ईजा -बौज्यू ,रिश्तेदार -बिरादर
पूँण- पांछि , ईष्ट- दिबात ,बाण-कुषाण,
छौव-मषाण और ये मायालु पहाड़
सब भूल जाने वाले ठैरे
फिर बुड्याँकाव पश्चाताप में अठवार देने
हाट कालिका आने वाले ठैरे हम
क्या खाक पहाड़ी ठैरे।
-कुलदीप कार्की