Wednesday, March 11, 2020

Hindi poetry uljhan उलझन

उलझन

कभी  किसी ने हाथ झटका,
कोई अब भी साथ दे रहा है।
इसी चिंतन में व्यस्त हूँ साहब,
भगवान तू चाह क्या रहा है ।।

कंटकों से भरे सफर में ....
यूँ अनमनाया ही चल रहा हूँ।
समय के गर्भ में लिखा क्या है,
ये बस संकेतकों से ही पढ़ रहा हूँ।।

छोर पे धुँधला ही नजर आ रहा है,
बता नही सकता वास्तविकता क्या है।
सकारात्मकता है या नकारात्मकता,
कह नही सकता इसका परिणाम क्या है।।

गतिशील ही है सब समय के साथ,
मैं बस उसका ही अनुकरण कर रहा हूँ।
लौ बुझ रही या है जल रही इसीलिए,
धरा के इस खेल को नमन कर रहा हूँ।।

दिवास्वप्न में यूँ ही खो रहा हूँ,
शुरुआत हो रही या हो रहा अन्त है।
उलझन यही है कि बस..... बस.....,
पतझड़ है या आने वाला बसन्त है ।।

बीहड़ों को चीरते हुए.....
गीत गुनगुनाते चल रहा हूँ।
आश्रय की तलाश में बस,
अभी तक हाथ मल रहा हूँ।।

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