ये ढलती शामो को एकटक निहारना
और इन शामो का अंधियारे में
कहीं धीरे से गुम हो जाना
क्या खूब है इनका मिजाज़
एक अलग तरह की शांति
हमारे शरीर मे भर देना
जिसको बया कर पाना
लगभग असंभव सा है
सूरज की उन आखरी किरणों का
हमारे आँखों पर पड़ना
और वो ठंडी बयार का
हमारी शरीर का हमारे छूना
सब कुछ वहीं है पर
कुछ भी ना होने का एहसास
इस अंधियारे कि चादर का
सब कुछ अपने में छुपा लेना
हमारे उन रिश्तों की तरह है
जो मौजूद होतेे हुए भी
कही गुम से हो गए है।
जो वजूद में तो है
बस अपना अस्तित्व भूल गये है।।
No comments:
Post a Comment