हे सुन्दरी!
व्याकुलता न बढ़ाओ मेरे हृदय की |
आनन्दित, प्रफुल्लित और रक्त संचरित होता तन में ,
जब ये दृग देख ही लेते हैं, तुम्हें इस संसार उपवन में ।
तुम्हे पाना , न पाना नियति - गर्भ में छोड़ चुका हूँ ,
विवश हूँ, व्याकुल हूँ, सो सारे बन्धन तोड़ चुका हूँ ।
मेरे यत्र-तत्र मृग-मरीचिका ही बन, तुम फिर रही हो,
शीतलता लिये हुए फिर भी, हृदय में नीर सी गिर रही हो।।
यद्यपि रात्रि-चातक हूँ, पिपासा है कि बढ़ ही रही है ,
धीरे-धीरे ही सही पर ये आखें, तुम पर ही अड़ रही हैं।
अरुणिमा कहूँ, चाँदनी कहूँ, या कहूँ तुम्हें पुष्प-लता ?
रे मन के सारथी अब इस, प्रश्नचिन्ह का उत्तर तू ही बता ।
हे सुन्दरी!हे सुन्दरी!हे सुन्दरी!ये कैसी दुविधा है हाय री ।।
नयनों की निद्रा तो अब ,अवश्य कुपित ही हो गयी है ,
खिलना है, या मुरझाना है, जो भी है ये उमंग नयी है ।
है आशा अभी नहीं, लेकिन प्रत्युत्तर का आकांक्षी हूँ ,
असीमित, अनंत नभ का मैं उड़ता हुआ एकल पक्षी हूं ।।
यदि तुम्हारे और मेरे मध्य ,स्तर की ये दरिया न होती,
तो ये व्यग्रता, उदासीनता, यूँ घुट-घुट कर शीश झुका न रोती ।
उच्चस्तर, निम्नस्तर, स्तर - स्तर का ही ये अनोखा इक खेल है,
अन्यथा लोग चाहे कितना भी, अन्ततः यहां होता ही मेल है ।
हे सुन्दरी!हे सुन्दरी!हे सुन्दरी!ये कैसी दुविधा है हाय री ।।
हे प्रिये !!
व्याकुलता न बढ़ाओ मेरे हृदय की |
- मुकुन्द
ये कविता मेरे मित्र बालमुकुंद सिंह बोरा दवारा लिखी गयी है। धन्यवाद बोरा जी
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