मैं लिखता आया हूँ
मैं लिखता आया हूँ
कोरे कागज पे अक्सर
अपने भीतर के अवसाद को
खालीपन के उन्माद को
जो भी लाज़मी लगता है
बस लिखकर भुला देता हूँ।
मैं लिखता आया हूँ
अपने मन की अवधारणाएँ
अपने अस्तित्व की गाथाएँ
जो कल की धूप में
बर्फ की तरह पिघल जाती हैं
जो बहती रेत सी थामने पर
हाथों से फिसल जाती हैं।
मैं लिखता आया हूँ
अपने भीतर का दर्द
खुद के अंदर का मर्द
जो क्षणिक ही सार्थक लगता है
परिस्थितियाँ बदल जाने पर
जो ओझल सा हो जाता है।
मैं लिखता आया हूँ
अपने मन की आहतें
अपना अकेलापन
जो संसार की भीड़ में भी
शिथिल पड़ा रह गया है।
जो दिनचर्या के क्रम में
फँसकर रह गया है।
मैं लिखता आया हूँ
गरीबी की दरकार पर
यौवन की हुंकार
जो एक असम्यक जिद है
वक्त के आड़े आती है
असंभव से लगने वाले कल को
आज में बदल जाती है।
मैं लिखता आया हूँ
समाज के अभावों को
मनुष्यों के स्वभावों को
जो ढुलकते रहते हैं
सुख की ढ़लान पर
और रुक जाते हैं
सफलता की प्रभुसत्ता पर।
मैं लिखता आया हूँ
भविष्य की खोज में जुटी
अवैधानिक रास्तों से निकलकर आती हुई
लंबी भीड़ की दास्तां
जो एकाएक बढ़ती चली जाती है
एक अंतहीन काफिला बनाती है।
मैं लिखता आया हूँ
और शायद लिखता रहूँगा
तब तक जब तक
मेरा आध्यात्म जिंदा रहेगा
तब तक जब तक
जीवन का ये दौर चलता रहेगा।
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