पांचाली का दांव
हस्तिनापुर छोड़, पाण्डव नव नगरी जब आये,
छोड़ कौरव, बन्धु - बान्धव संग तब लाये।
देख इन्द्रप्रस्थ, चकित रह गया दुर्योधन
अपमानित करने को आतुर उसका ईर्ष्यालू मन।।
द्यूत क्रीडा करने की उसने घृणित चाल अपनाई,
मामा शकुनि संग आमंन्त्रण की तुच्छ नीति बनाई।
एक ओर पारंगत शकुनि, नवसिखिये पाण्डव दूजे,
स्वाभाविक था आश्चर्य, पाण्डव क्रीडा में कैसे कूदे।।
एक-एक संपत्ति दाव लगा, युधिष्ठिर सबकुछ हार गये,
ये पाप, असत्य बढ़ना था, जो धर्मराज मतिमार गये।
भ्राताओं संग द्रौपदी, अन्त समय वो हार गये...,
अवसान समय क्रीडा के, धर्म, सत्य सब स्वर्ग सिधार गये।।
जीत देख कौरव की, मांमा-भांजे लगे मन-मन हरषाने,
केश खींच सभा में दुःशासन, लगा द्रौपदी तब लाने ।
खिन्न हुआ सभा मण्डल, छाने लगा अंधियारा...,
आन छोड़ जब लगा स्ववचन युधिष्ठिर को प्यारा ।।
होने लगा चीरहरण तब, निःसहाय पड़ी पांचाली का,
अश्रुधारा बह उठी सभा में, पांडव संग जग-माली का।
हे रक्षक! हे गोकुल नन्दन! हे गोपाल! तू ही परमेश्वर,
द्रवित हुआ हृदय प्रभु का, दिया उचित पांचाली को वर।।
जब-जब स्त्रीत्व का अपमान हुआ इस नगरी में,
तब-तब प्रकट हुए क्रुद्ध प्रभु, एक छोटी सी गगरी में ।
प्रभु! कृपा करें, हो गयी जड़ बुद्धि इस तुच्छ दास की,
भव सागर पार लगावें, अथवा करावें तैयारी वनवास की।।
।। इति।।
- मुकुंद
- मुकुंद
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